ढोल-नगाड़े की आवाज , भगवा ध्वज और भक्तिभाव से ओतप्रोत लाखों की संख्या में जयकारा लगाते लोग, जी हाँ! हम बात कर रहे हैं विश्व की प्राचीनतम नैमिषारण्य की 84 कोसीय परिक्रमा की। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति नैमिषारण्य की चौरासी कोस परिक्रमा करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है और चौरासी लाख योनियों में बारम्बार जन्म-मरण के भंवर से बाहर निकल जाता है।
यह परिक्रमा प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की अमावस्या के बाद की प्रतिपदा से आरंभ होकर पूर्णिमा तक चलती है। हर साल बड़ी संख्या में भक्त और साधु-संत परिक्रमा करने आते हैं। परिक्रमा के साथ-साथ भक्त अनेक तीर्थों, मंदिरों एवम तपस्या स्थलीयों के दर्शन करने का सौभाग्य भी प्राप्त करते हैं।
84 कोस परिक्रमा चक्रतीर्थ में स्नान कर, सिद्धविनायक जी की पूजा-अर्चना के साथ प्रारंभ होती है तथा पूर्णिमा को होलिका दहन के साथ मिश्रिख के दधीच कुंड पर परिक्रमा पूर्ण होती है।
परिक्रमा के दौरान मिलनेवाले प्रमुख तीर्थस्थलों में सिद्धिविनायक धाम, चक्रतीर्थ, व्यासपीठ, सूत गद्दी, श्रीराम अश्वमेघ यज्ञशाला, मनु-सतरूपा तपस्थली, गोमती घाट, हनुमान गढ़ी, पाण्डव किला, प्राचीन भूतेश्वर मन्दिर, हत्याहरण तीर्थ ,पंच प्रयाग, दशावतार मंदिर, मां ललितादेवी धाम और दधीचि कुंड शामिल हैं।
चौरासी कोसी परिक्रमा की प्राचीनता के अनेक साक्ष्य हमें स्कंद पुराण, विष्णु पुराण एवम महाभारत से मिलते हैं। धार्मिक ग्रंथों से तो चौरासी कोसीय परिक्रमा को सतयुग में महार्षि दधीचि ने आरंभ किया था ऐसे उल्लेख मिलते हैं।
कहते हैं इंद्र और अन्य देवता व्रतासुर से त्रस्त हो उसके वध के लिए महर्षि दधीच से अस्थियां दान करने की प्रार्थना करने गए। तब नैमिषारण्य में तप कर रहे महर्षि दधिची ने अस्थिदान से पूर्व सभी तीर्थों के दर्शन की इच्छा व्यक्त की। समय बचाने के लिए इंद्र ने नैमिषारण्य की 84 कोस की परीधि में सभी तीर्थों और 33 कोटि देवी-देवताओं को आमंत्रित एवम स्थापित किया। महर्षि दधिचि ने इन्ही की परिक्रमा कर अस्थिदान किया। तभी से यह मान्यता प्रचलित है की जो व्यक्ति इस परिक्रमा को करेगा वह सभी तीर्थों के पुण्य का भागी होगा तथा 84 लाख योनियों मे जन्म-मरण से मुक्ति प्राप्त कर लेगा।
एक अन्य प्रचलित मान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम ने रावण की ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त होने के लिए अपने स्वजनों के साथ त्रेतायुग मे इस क्षेत्र की परिक्रमा की थी। तब से चौरासी कोसीय परिक्रमा अनवरत चली आ रही है। श्रीराम ने स्वजनों के साथ परिक्रमा की अतः इसे रामादल भी कहा जाता है।
मान्यता है द्वापरयुग में श्रीकृष्ण एवम पाण्डवों ने भी नैमिषारण्य की 84 कोसीय परिक्रमा थी।
ऐसी मान्यता है की वनवास के दौरान भी प्रभू श्रीराम ने 84 कोस परिक्रमा की थी। तब साधु संतों के साथ जहाँ रात्री विश्राम किया था , वह स्थान आज भी पड़ाव कहे जाते हैं। कोरौना, देवगवां, मड़रूआ, जरिगवां, नैमिषारण्य, कोल्हुआ बरेठी, मिश्रिख ,हरैया, नगवा कोथावां, गिरधरपुर उमरारी व साक्षी गोपालपुर यह सभी पड़ाव हैं जहाँ भक्तजन रात्री विश्राम करते हैं।
लाखों की संख्या में साधु-संत और भक्त जब हाथी-घोड़े के साथ भजन कीर्तन करते, जयकारे लगाते, गाते-बजाते परिक्रमा करते हैं तब यह छंटा देखते ही बनती है। इस परिक्रमा को देखकर अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है।